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प्र꣡ सो꣢म या꣣ही꣡न्द्र꣢स्य कु꣣क्षा꣡ नृभि꣢꣯र्येमा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिः सु꣣तः꣢ ॥११६२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र सोम याहीन्द्रस्य कुक्षा नृभिर्येमानो अद्रिभिः सुतः ॥११६२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । सो꣣म । याहि । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । कु꣣क्षा꣢ । नृ꣡भिः꣢꣯ । ये꣣मानः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुतः꣢ ॥११६२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1162 | (कौथोम) 4 » 2 » 10 » 3 | (रानायाणीय) 8 » 5 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर वही विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) ज्ञानरस ! (नृभिः) नेता गुरुओं से (येमानः) नियन्त्रित किया जाता हुआ, (अद्रिभिः) अखण्डित पाण्डित्यों से (सुतः) प्रेरित किया गया तू (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (कुक्षा) गर्भ में (प्र याहि) उत्तम प्रकार से पहुँच ॥३॥

भावार्थभाषाः -

विद्वान्, नियमपरायण गुरु लोग जब छात्रों को पढ़ाते हैं, तब उन छात्रों के अन्तरात्मा में विशुद्ध ज्ञान-रस का प्रवाह सुगमता से प्रकट हो जाता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः स एव विषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) ज्ञानरस ! (नृभिः) नायकैः गुरुभिः (येमानः) नियम्यमानः, (अद्रिभिः) अखण्डितैः पाण्डित्यैः (सुतः) प्रेरितः त्वम् (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (कुक्षा) गर्भे। [कुक्षौ इति प्राप्ते ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति विभक्तेर्डादेशः] (प्र याहि) प्र गच्छ ॥३॥

भावार्थभाषाः -

विद्वांसो नियमपरायणा गुरवो यदा छात्रानध्यापयन्ति तदा तेषां छात्राणामन्तरात्मनि विशुद्धज्ञानरसप्रवाहः सुतरामाविर्भवति ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०९।१८।